11 सितंबर , 2021 को 9/11 हमलों की 20वीं बरसी तक अफगानिस्तान से सभी अमेरिकी सैनिकों की वापसी हो जाएगी अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन की इस घोषणा के साथ ही अमेरिका द्वारा संचालित अब तक का सबसे लंबा युद्ध संघर्ष बेनतीजा ही समाप्त हो गया। जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की बहुत बड़ी पराजय कहा जा रहा है। दो विश्व शक्तियों के बीच यह कबीलाई देश दशकों से वर्चस्व का मैदान बना रहा है। साम्राज्यों की कब्रगाह कहा जाने वाला यह देश आज भी घोर अमानवीय संकटों से जूझ रहा है। तालिबान जब फिर से सत्ता में प्रवेश कर रहा है दुनिया भर की निगाहें इस मुल्क पर हैं।
जैसा आज अमेरिका के साथ हुआ , वैसा ही सोवियत संघ की सरकार के साथ भी हुआ था। 1979 में अफगनिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार को बचाने के लिए सोवियत संघ (अब रूस) ने अपनी सेनाएं भेजी। जिसका पश्चिमी देशों ने घोर विरोध किया परिणाम स्वरूप इन देशों ने प्रमुख रूप से अमेरिका द्वारा मुजाहिद्दीन (तत्कालीन सरकार के विरुद्ध कबीलाई संगठन) को आधुनिकतम हथियारों से लैस कर रूस से लड़ने के लिए प्रेरित किया गया। 1 दशक तक भारी नुकसान सहने के बाद रूसी फौजें वापस चली गई।
वो कहते हैं इतिहास आपके द्वारा किए गए सभी कार्यों का ब्यौरा रखता है और आप होते हैं उन किए गए कामों के जिम्मेदार। जिस लड़ाई को अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने रूस को अफगानिस्तान से हटाने के लिए खिलाफ शुरू किया था। उसका भुगतान अमेरिका को 11 सितंबर 2001 वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले से चुकाना पड़ा।
इस आतंकी हमले के जबाब में अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों द्वारा अलकायदा और उसे आश्रय और समर्थन प्रदान करने वाली तालिबान सरकार के विरुद्ध सैन्य अभियान एंड्यूरिंग फ्रीडम आरंभ किया और वहाँ से तालिबान सरकार को उखाड़ फेंका।
अमेरिका और नाटो की फौजें अफगानिस्तान में 20 वर्षों तक रहीं। एक अनुमान के मुताबिक 2400 से अधिक अमेरिकी सैनिक मारे गए और लगभग 2.3 ट्रिलियन डॉलर से अधिक खर्च हुआ।
बाइडेन द्वारा अमेरिकी सेनाओं की वापसी के एलान के साथ ही ज्यों ज्यों अमेरिकी फौजें जाती रहीं त्यों त्यों तालिबान के हमले बढ़ते रहे और 10 दिन के भीतर काबुल कब्जा कर लिया गया।
तालिबान के दोबारा शासन से अफगान जनता डरी हुई है जिसकी भयावह तस्वीरें अमेरिकी सैनिकों की वापसी के दरमियान हमने देखीं हैं।
तालिबान ?
तालिबान जिसका पश्तो भाषा में अर्थ है छात्र।1990 के दशक की शुरुआत में सोवियत सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी के दौरान उत्तरी पाकिस्तान में उपजा आतंकवादी संगठन है। वर्तमान में यह एक सक्रिय इस्लामिक कट्टरपंथी राजनीतिक सैन्य संगठन है जो अफगानिस्तान में इस्लाम के सख्त रूप को फिर से लागू करना चाहता है।
इन्होंने अपने शासन के दौरान शरीयत या इस्लामी कानून के कठोर संस्करण (तालिबान द्वारा स्वयं निर्मित) लागू किया।
जिसमें कठोर दंड की व्यवस्था, महिलाओं के शिक्षा प्राप्त करने और उनके स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, संगीत व सिनेमा जैसे बुनियादी अधिकारों पर प्रतिबंध लगाना रहा है।
अमेरिका द्वारा तालिबान शासन को उखाड़ फेंकने के बाद अफगानिस्तान में एक ट्रांजिशनल सरकार की स्थापना की गई थी। ताकि लोकतांत्रिक तरीके से पिछ्ली अव्यवस्थाओं को सुधारा जा सके व अफगान जनता में सरकार के प्रति विश्वास में वहाली हो सके। लेकिन तालिबान लड़ाके इस दौरान भी अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे रहे और अपनी गतिविधियां दक्षिणी अफगानिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में बढ़ाते रहे।
अमेरिकी सैनिकों की वापसी के 10 दिन बाद ही तालिबान ने अफगान सरकार के खिलाफ विजय प्राप्त कर ली जिसकी कल्पना किसी ने नही की थी । तालिबान की यह जीत तीन प्रमुख कारणों से हुई।पहला अमेरिकी सेनाओं के यकायक जाने से अफगान सुरक्षा बल हतोत्साहित हो गए। दूसरा उसे पाकिस्तान स्पेशल फोर्सेज , आई एस आई ,का बखूबी साथ मिला । तीसरा और बड़ा कारण अफगान सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार से उपजा असंतोष था। कहा जाता है अफगान सैनिकों को समय पर वेतन भी नही मिलता था।
अब प्रश्न है आखिर अमेरिका को यहां से अपने सैनिकों की वापसी क्यों करनी पड़ी? विपरीत ध्रुवों वाले दो पक्षों में सैनिक वापसी का समझौता कैसे हुआ?
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक अमेरिका द्वारा बहुत पहले ही इस बात को स्वीकार कर लिया गया था कि यह युद्ध अजेय है और शांति वार्ताओं द्वारा ही इसका स्थायी समाधान किया जा सकता है। इसी कड़ी में अमेरिका ने मध्यस्थों के साथ कई शांति वार्ताओं में भाग लिया।
• मुरी वार्ता :
साल 2015 में अमेरिका ने तालिबान और अफगान सरकार के बीच पहली बैठक में एक प्रतिनिधि भेजा था। जिसकी मेजबानी पाकिस्तान द्वारा 'मुरी' में कई गई थी हालांकि इससे कुछ प्रगति हासिल नही की जा सकी थी।
• दोहा वार्ता :
इस वार्ता से पहले तालिबान ने साफ कर दिया था कि वे केवल अमेरिका के साथ प्रत्यक्ष वार्ता करेंगें, न कि काबुल सरकार के साथ।
इसके बाद हुए समझौते में अमेरिकी प्रशासन ने 1 मई 2021 तक अपने सभी अमेरिकी सैनिकों को वापस बुला लेने का वादा किया। जिसे बाद में बढ़ाकर 11 सितंबर 2021 कर दिया गया था।
वहीं तालिबान ने समझौते के तहत हिंसा को कम करने,अंतर अफगान वार्ता में शामिल होने और विदेशी आतंकवादी समूहों के साथ सभी संबंधों को समाप्त करने का वादा किया गया।
अब जान लेते हैं भारत और तालिबान के संबंधों के बारे में क्यों भारत द्वारा इसका विरोध किया जाता रहा है।
• भारत - तालिबान संबंध
भारत तालिबान संबंधों पर गौर करें तो दोनो के बीच सिर्फ असहमति ही नहीं बल्कि वैमनस्य भी रहा है। 1999 में इंडियन एयरलाइंस के आइसी -814 विमान को आतंकियों ने हाईजैक कर कंधार ले गए थे। यहां तालिबान ने आतंकियों को संरक्षण दिया और उनकी मांग पूरी होने के बाद ही हवाई जहाज और यात्रियों को वापस भारत आने दिया। जुलाई 2008 में काबुल में भारतीय दूतावास पर हुए हमले में 28 लोग मारे गए और 141 घायल हुए इसके पीछे भी तालिबान का हाथ था। संक्षेप में पिछले 20 वर्षों से भारतीय प्रतिष्ठानों या हितों पर तालिबान किसी ना किसी प्रकार से आघात पहुंचाते रहे हैं। भारत ने अपनी तरफ से कभी तालिबान को मान्यता नहीं दी। भारत की दलील थी कि तालिबान एक आतंकवादी संगठन है और भारत उससे संवाद नहीं कर सकता।
• सामरिक चिंता :
अफगानिस्तान में जो परिदृश्य बन रहा है वह भारत के लिए काफी घातक हो सकता है यहाँ पाकिस्तान के अलावा चीन ,तुर्की, ईरान अपनी पकड़ बनाने की जुगत कर रहे हैं।
जिसको लेकर भारत को और सतर्क व अपनी विदेश नीति में व्यापक बदलाव करने की जरूरत है जैसा कि सामरिक सलाहकार बताते रहे हैं।
तालिबानी शासन से पाक में जहाँ जश्न का माहौल है तो चीन ने खुलेआम कहा है कि वह तालिबान के साथ दोस्ताना और सहयोगात्मक संबंध बनाएगा। वहीं चीन की एक दूरगामी नीति अपनी बेल्ट रोड परियोजना को अफगानिस्तान तक ले जाने की है साथ ही उसे उसकी खनिज संपदा का भी लोभ है।
और तुर्की की महत्वाकांक्षा इस्लामिक देशों का नेतृत्व करने की है। ये तीनो ही देश भारत विरोधी हैं और खतरे की घंटी भी जिससे हमें सतर्क रहने की आवश्यकता है। रूस इसलिए खुश है क्यूंकि वही हाल अमेरिका का हुआ जो उसका हुआ था।
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार सुरक्षा की दृष्टि से भारत की सीमाओं पर आतंकियों का दबाव बढ़ेगा पूर्व में पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के मुजाहिद्दीन कश्मीर भेजे थे प्रश्न है क्या यह दोबारा होगा ? इसके अलावा जैश -ए- मुहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा के हौसले और बुलंद है। यह दोनों ही संगठन कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को और तेज कर सकते हैं।
• भारत के निहितार्थ :
हिंदुस्तान के पास विकल्पों की कमी नहीं है आवश्यकता है उन्हें उचित ढंग से पहचानने की और सही समय पर उपयोग करने की। सामरिक विशेषज्ञों का मानना है कि भारत तालिबान को यह भरोसा दिलाना होगा कि उसकी प्रतिबद्धता और लगाव हमेशा की तरह अफगान जनता के प्रति वैसी ही है जैसी पूर्व में थी।
हमें अपना दृष्टिकोण उचित रूप से अफगानिस्तान के सामने रखना होगा हमने विकास कार्य में जो धनराशि खर्च की है वह अफगान जनता की भलाई के लिए थी। साथ ही अफगानिस्तान को बताना होगा कि उसकी भूमि का इस्तेमाल भारत में आतंक को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा आश्वासन मिलता है तब ही भारत तालिबान सरकार को मान्यता देने पर विचार कर सकता है।
इसके अलावा हमारी सुरक्षा एजेंसियां पश्तून राष्ट्रवादी तत्वों से संपर्क कर उन्हें सशक्त कर सकती हैं।
साथ ही अफगानिस्तान और पाकिस्तान में डुरंड लाइन को लेकर विवाद है जिसका लाभ उठाया जा सकता है। चीन उइगर मुसलमानों पर जो अत्याचार कर रहा है उसकी सही तस्वीर दिखाई जा सकती है। चीन और तालिबान की दोस्ती विशुद्ध अवसरवादी है। ये दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं इन दोनो के संबंध जितना बिगड़े उतना विश्व शांति के लिए बेहतर होगा।
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