नाटो प्लस को लेकर सतर्कता जरूरी

भारत अमेरिका संबंध समय के साथ हर दिन नई ऊंचाईयां छू रहे हैं. इसी माह भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चार दिनों की राजकीय अमेरिकी यात्रा भी प्रस्तावित है. उनके स्वागत को लेकर बाइडेन प्रशासन जोर शोर से तैयारियों में लगा हुआ है. दोनों पक्षों को पीएम के इस दौरे से बड़ी घोषणाओं की उम्मीद है. इस दौरान कुछ बड़ा, ऐतिहासिक और रोमांचपूर्ण हो सकता है. जिसकी तस्दीक अमेरिका के एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने भी की है. उन्होंने कहा कि दोनों देश साझा तरीकों से रक्षा उत्पाद और सैन्य तकनीकों , प्रौद्योगिकी, खुफिया सूचनाओं पर मिलकर काम करने को लेकर आगे बढ़ रहे हैं. लेकिन अमेरिका की नीतियों और हितों से दुनिया परिचित है. वह अपने सहयोगियों को उपयोग कर छोड़ने के लिए बदनाम रहा है. इसी कड़ी में एक अमरीकी सांसद ने भारत को नाटो प्लस समूह में शामिल करने की सिफारिश की है.उन्होंने कहा कि भारत को अमेरिका से सहभागिता बढ़ाने और चीन की आक्रामकता को काउंटर करने के लिए नाटो प्लस में सम्मिलित होना चाहिए. इसमें कोई गुरेज नहीं कि अमरीकी संसद में भी इस तरह की मांग उठे. यह बात सही है ऐसे किसी भी प्रस्ताव पर नई दिल्ली ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है लेकिन अमेरिकी नीतियों और रवैये को ध्यान में रखते हुए भारत को इससे सतर्क और चौकन्ना रहने की जरूरत है.

नाटो प्लस कैसे अलग

नाटो से तो हम सभी परिचित हैं ही जिसके 31 सदस्य देश हैं. नाटो प्लस इसके एक विस्तार की तरह है. इसमें अभी 5 सदस्य देश शामिल हैं इजराइल, जापान, साउथ कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, और न्यूजीलैंड. नाटो सदस्य आर्टिकल 5 के तहत जुड़े हैं, जो कहता है कि अगर किसी सदस्य पर हमला होता है तो इसे सभी पर आक्रमण की तरह देखा जाएगा.इस विचार को कलेक्टिव सिक्योरिटी कहा जाता है. लेकिन नाटो प्लस देशों को यह सुरक्षा-कवच प्राप्त नहीं है.इसके बजाय उन्हें खुफिया सूचनाएं, अधिक हथियार और सैन्य सहयोग प्रदान किए जाते हैं.

भारत को शामिल करने की क्यों हो रही पहल

इसका एक बड़ा और स्पष्ट कारण है भारत की वैश्विक रणनीति में मजबूत होती भूमिका और उसकी स्वतंत्र विदेश नीति और भारत का हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका का विश्वसनीय सहयोगी होना जो बढ़ती चीनी आक्रामकता पर लगाम लगा सकता है. वहीं उसकी एक और कोशिश इस क्षेत्र में भारत के साथ को लेकर भी है. वहीं पश्चिमी देश भारत को महत्वपूर्ण समझते हैं. वे भारत को एक उभरती हुई ताकत के रूप में देखते हैं, जो अपने क्षेत्र में शांति और स्थायित्व कायम रखने के लिए महत्वपूर्ण है.

चीन ने जताई आपत्ति

चीनी रक्षा मंत्री ली शांगफू ने बीते सप्ताह सिंगापुर में शांगरिला वार्ता में कहा कि अमेरिका द्वारा इस तरह के गठजोड़ ‘इस क्षेत्र में संघर्षों और टकरावों को तूल देकर देशों को अपने पाले में करने के हथकंडे हैं. इससे अमेरिका के अपने फायदे जुड़े हैं, शक्ति संतुलन के नाम पर वह दुनियाभर में अपनी दुकान चला रहा है. और चीन को कथित ग्लोबल विलेन बनाने की साजिश रच रहा है. जिससे वैश्विक समुदाय को सचेत रहने की आवश्यकता है.

बिगड़ेंगे रूस से संबंध 

पश्चिमी ताकतें चीन पर अंकुश लगाने के लिए भारत को एक साधन की तरह इस्तेमाल करना चाहती हैं. और इसीलिए भारत को इससे दूरी बनाए रखना चाहिए. क्योंकि नाटो अपने सहयोगियों का इस्तेमाल करके उन्हें अकेला छोड़ देने के लिए बदनाम है. दूसरे, भारत की विदेश नीति रणनीतिक स्वायत्तता पर आधारित है.उसके सभी से अच्छे सम्बंध हैं- अमेरिका, यूरोप और रूस . वह क्वाड का सदस्य है और एससीओ का भी. उसे जी7 समिट में निमंत्रित किया जाता है और वह ब्रिक्स में भी शामिल है. नाटो प्लस में शामिल होने से भारत की रणनीतिक स्वायत्तता बाधित होगी. इससे वह पश्चिम के निकट चला जाएगा, जिससे रूस से उसके सम्बंध कसौटी पर आ जाएंगे.


 संवाद जरूरी लेकिन सदस्यता नहीं 

ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड नाटो प्लस सदस्य हैं, उन्होंने अमेरिका के साथ दोनों विश्व युद्ध लड़े थे. उनके सम्बंध इतने पुराने हैं.जापान-दक्षिण कोरिया अमेरिका के परमाणु-प्रसार का हिस्सा हैं. इजरायल अमेरिका का निकटतम राजनीतिक-सैन्य सहयोगी है.जबकि भारत से अमेरिका का सम्बंध बहुत भिन्न है. यह साझा इतिहास या संधियों या सांस्कृतिक समानताओं के बजाय रणनीतिक हितों पर आधारित है. अतीत में कई दशकों तक उनके आपसी सम्बंध अविश्वास, आलोचना और प्रतिबंधों से भरपूर थे. तब से अब तक दोनों देशों के बीच निकटता बहुत बढ़ी है, पर अमेरिका से एक सैन्य संगठन में जुड़ जाना भारत के हित में नहीं. इसका यह मतलब नहीं कि भारत को नाटो से संवाद समाप्त कर लेना चाहिए. नाटो मनुष्यता के इतिहास का सबसे ताकतवर संगठन है. उसके साथ संवाद बनाए रखने में समझदारी है, पर उसमें शामिल होने में नहीं.

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